इक खुबसूरत सी पतंग पर उड़ता हुआ मेरा दिल,
झूम जाना चाहता है डोर के मुकाबिल,
छु कर आकाश को फिर छोड़ दूँ डोर को,
फिर सोचता है,
लूट जाने के डर से,
छोड़ने को छोड़ने के विचार को,
फिर सोचता हूँ छोड़ूगा नहीं, तो पाउँगा क्या?
छोड़ूगा नहीं, तो उड़ पाउँगा क्या?
इस उन्मुक्त गगन को नाप भी क्या पाउँगा?,
बादलों के पार भी जा नहीं पाउँगा,
सोच के घोड़ो को दौड़ा नहीं पाउँगा,
फिर इक मुसाफिर होने के नाते,
छुट जाने और छोड़े जाने के भय से,
मुझे मुक्त होना ही होगा,
मुझे इस गगन में स्वयं को खोजना ही होगा,
आकाश हो या पताल, मुझे स्वयं को खोजना ही होगा,
कर्म मेरा ही होगा, और भविष्य मुझे ही जोड़ना होगा,
इस डोर के बंधन को अब तोडना ही होगा,
उन्मुक्त आकाश में अब उड़ना ही होगा.
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