Saturday, October 12, 2013

गाँव, राजनीति और बुद्धिजीवी

शहरो में मैंने जातियों को लेकर विशिष्ट बाते महसूस नहीं की| मेरे कुछ प्रिय मित्रो (जो आरक्षित वर्ग से थे) के बारे में मुझे काफी समय बाद मालूम हुआ की वे आरक्षित वर्ग से है| इस अनुभव से कुछ बाते स्पष्ट होती है|
अ)  ये लोग अपनी जाति की वजह से आधिक प्रभावित नहीं हुए| एवं
आ) वह समाज जिसमे मैंने उन्हें देखा वह भी जातियों को लेकर अधिक संवेदनशील नहीं था|
कुछ उदहारणों में तो दोस्तों की जाति के बारे में तब पता लगा जब जब कोई फॉर्म भरना होता था या किसी परीक्षा की तैयारी के बारे में पूछना होता था की इसकी तैयारी कैसे की जाए तब वे कहते है की “भाई देखो मै आरक्षित वर्ग से हूँ और तुम साधारण वर्ग से इसलिए मुझ से नहीं पुछो तुम्हे कोई फायदा नहीं होगा|”
उक्त उदहारणों से स्पष्ट है की काफी बड़ा वर्ग जातियों को पीछे छोड़ आया है| लेकिन जब जरा ट्रेनों के अनुभव भी देख ले- मैंने महसूस किया की यहाँ लोग आप की जाति से ज्यादा आपके जन्म स्थान के बारे में इच्छुक होते है| और जब मै कुछ गाँवो में टहला, तो मुझे अनुभव हुआ की यहाँ लोग आपकी जाति जानने के इच्छुक होते हैं| यह उत्सुकता सामने वाले के बारे में थोड़े में ज्यादा जानने की हो सकती है अथवा यह आपके गृह राज्य के बारे में फैली हुई अफवाहों / मानसिकता से प्रभावित होती है| गाँव में यह आपके साथ व्यवहार करने के तरीके बदल सकती है|
व्यक्तिगत तौर पर मै यह तो मानता हूँ की निवास स्थान और कार्य आपकी जीवनशैली का निर्माण करते है| और शायद लोग जातियों के बारे में जानने के इसलिए ही इच्छुक हो पड़ते है की यह व्यक्ति के बारे में काफी जानकारी दे देता था| किन्तु आज के समय में जब नौकरियों के लिए आदमी विदेश तक चला जाता है और नौकरियां मिलने का कोई वंशानुगत पैमाना नहीं रह गया है| इस वजह से वंशानुगत अथवा जाति अथवा जन्म स्थान की महत्ता लगभग समाप्त हो गयी है|
(कार्यो का वंशानुगत होना और उस पर एक कार्य को दुसरे पर वर्यता मिलना ही जाति व्यवस्था की सबसे बुरी बात थी, इन दोनो में एक भी बात यदि सही न होती तो जाति व्यवस्था ने इतना नुक्सान न किया होता)
लेकिन मेरा विषय जाति नहीं है मेरा विषय गाँव, राजनीति और बुद्धिजीवी है, मै आपको इस तरफ खींच लाऊ इससे पहले एक और अनुभव से आपको गुजारना चाहूँगा| मुझे कुछ समय पहले हरियाणा के एक गाँव में रात रुकने का मौका मिला, यद्यपि मै वहां ज्यादा लोगो से नहीं मिला और ज्यादा लोगो से बात भी नहीं हुई फिर भी जाति सम्बंधित बाते स्पष्ट हो गयी थी| और जो कुछ जानने का मौका मिला उसे आपके साथ साझा करता हूँ-
अ) लोगो के घर कुनबो / जाति के आधार पर समूह में बने हुए हैं|
आ) वहाँ लोग वही जातिगत तरीके अपनाते है (छुआ-छूत आदि)
इ) पूर्व मुख्यमंत्री के एक बेटे ने नरेंदर मोदी को बिना शर्त समर्थन देते हुए जनता से वोट मांगे है|(सुनते है की वह बड़ी रैली थी)
इ२) इनके पिता एवं भाई यानी ओमप्रकाश चौटाला परिवार के सदस्य शिक्षक न्युक्ति मामले में जेल में बंद है (अधिक जानने के लिए यहाँ देखे)
ई) गांवो में लोग एक दुसरे से काफी इर्ष्या रखते है, उदहारणार्थ एक युवक की नौकरी लग जाने पर उसकी नियुक्ति से एक रात पहले उसके परिवार से गाँव के कुछ लोगो का झगड़ा होना|
उ) गाँव में राजपूतो की संख्या ज्यादा है इसलिए राजपूत सरपंच ही बनते है, यदि कभी गलती से नहीं बना तो इसका मतलब है की उनमे आपसी झगडा हो गया|
ऊ) गाँव के चौक में एक गाँव के ही व्यक्ति की, गुटों की लड़ाई के चलते, हत्या कर दी गई|
ऋ) जो भी सरपंच बना उसने तिमंजिला कोठी बनवा ली| और गाँव में यह हर कोई जानता है|

साथ ही कई दोस्तों से(गाँव के रहने वाले है), मालुम पड़ता है की पहले जहाँ पहले गाँव के हर व्यक्ति को घर के व्यक्ति का सम्मान मिलता था| यानी बच्चो को कोई थप्पड़ मार देता था तो यह समझा जाता था की कोई शारारत की होगी वहीँ अब लड़ाई हो जाती है| यह भी ध्यान दे की “सत्यमेव जयते” की एक कड़ी में घर के ही लोगो द्वारा बच्चो के साथ किये गए दुर्व्यवहार पर चिंता जताई गई थी|

भारत, गाँवो से बना है और उक्त दृश्य भी गांवो के ही है| मै दावे से तो नहीं कह सकता की यह हालात सभी गांवो के है लेकिन मुझे लगता है की अधिकतर गाँव इस तरह की समस्यों से जूझ रहे है| वोट डालते वक्त गाँव के लोग अधिक उत्साह रखते है| और गांवो की इन समस्यों के चलते आप समझ सकते है की वहां जानकारी की कितनी कमी है| यह की दुनिया कितनी बड़ी है, देश दुनिया में क्या हो रहा है, जो अलग अलग नियम कायदे बनते है वो क्या प्रभाव डाल सकते है| इन सब से बेखबर लोग आपस में लड़ने में व्यस्त है|
गांवो और शहरों को साथ में देखने से लगता है की शहर अपनी गंदगी से परेशान हो कर रास्तो की तलाश करने की कोशिश में लगे हुए है, जैसा की दिल्ली- बैंगलोरे जैसे शहरों में महसूस कर सकते है| लेकिन गांवो में व्यवस्था परिवर्तन की बात अभी शुरू होना भी बाकी है| लेकिन ये बेहद संजीदा विषय है यदि हम स्वराज की और मुह ताकते है| क्योकि स्वराज की एक बेहद बड़ी कीमत है जागरूकता जो सम्पूर्ण जनमानस में होनी चाहिए| जरुरत है पंचायतो, चौपालो तक व्यवस्था परिवर्तन के शब्द जंजाल को समझाने की|
हम प्रबुद्ध जन अखबारों और इन्टरनेट माध्यमो पर अपने शब्दों का कितना भी लावलश्कर जमा ले, वास्तविकता यह है की क्रांति गली-मौहल्लो, गांवो में शुरू होगी जिसकी शुरुवात दिल्ली में देखने को मिलती है| उम्मीद है की हम वहां तक पहुँच पायेंगे जहाँ के लिए निकले है|

अब रही बात तथाकथित PM उम्मीदवार के भक्तो की, तो यदि मै उन्हें ठीक से समझ सका हूँ तो वे इस PM उम्मीदवार को उपलब्ध उम्मीदवारों में से पसंदीदा मानते है| और एक हद यह बात ठीक भी है| लेकिन राजनीति क्या 5 साल की ही दृष्टि रखने से की जानी चाहिए| क्या भारतीय जनमानस इतना क्रियाशील है? यदि शहरो की विशिष्ट जनता को छोड़ दे तो 10-15 सालों में तो लोग किसी जगह हुई घटना प्रभाव ही नहीं समझ पाते या शायद भूल जाते है| देश बनाने के लिए पांच साल छोटी समय इकाई है| देश बनाने में तो पीढ़िया बीत जाती हैं|

मैंने कई जगह पढ़ा है और कई विद्वानों से सुना है "order comes from chaos"/ निराशा ही आशा की जननी है/बदसूरती ही खूबसूरती की माँ है| बदसूरती कालखंड का वह हिस्सा है, जहाँ खूबसूरती, बदसूरती के प्रसव में होती है| ये दोनों सुन्दर हो न हो इस बात से फर्क नहीं पड़ता, वे दोनों ही जीवन के लिए आवश्यक है- यह महत्वपूर्ण है|

जब तक देश में चल रही विनाशकारी गतिविधिया भारतीय जनमानस को झकझोर नहीं पाती/यह नहीं कहती की जाओ लोगो को समझाओ की अब तुम्हारा अपने लिए काम करने से भी भविष्य नहीं सुधरेगा तब तक तो देश को गर्त में जाना ही होगा| की जिसके बाद तुम चिट्टियों की तरह यह मान लोगे की पानी में डूबने से क्या होगा - कुछ नहीं हम मरेंगे और बाकी लोग हमारी लाशो पर से गुजरते हुए लेकिन अपना भविष्य बना लेंगे|

ध्यान दिलाना चाहूँगा की JP आन्दोलन में सम्पूर्णता न ले पाने के कारण ही आज इस विकट समस्या में फंसे है, यदि अब भी कारगर उपाय नहीं किये गए तो यह समस्या और विकराल रूप ले लेगी, यह समस्या हर गाँव, गली, मौहल्ले में होगी और हमारी अगली पीढ़ी हमें कोसेगी की वक्त रहते हमने अपनी जिम्मेवारी नहीं निभाई|

हम अभी मोदी को पा भी ले तो वह भारतीय जनमानस में आ रही गिरावट के कारण पैदा हुए लक्षणों को दबाने मददगार साबित हो सकता है, लेकिन उसके बाद आने वाली भीषण महामारी के लिए क्या हमारे पास कोई तैयारी है?

No comments:

Blog Hit Counter

Labels