Tuesday, September 03, 2013

शिक्षा- वस्तुस्थिति और भविष्य

परिभाषा
आज के जीवन में शिक्षा जितनी जरुरी है, शायद् और कुछ भी नहीं| शिक्षा वर्षो से मानव सभ्यताओ का अभिन्न अंग रही है| हमारे ग्रन्थ कहते है गुरु ब्रह्मा गुरु विष्णु गुरु देवो परब्रहम..., जिसका चर्चित मतलब है की गुरु ही सब कुछ है, वही विचारों को उत्पन्न करता है वही पोषण और वही कुविचारो का अंत करता है| लेकिन शायद ये मतलब सिर्फ चर्चित मतलब है| इसका मतलब मेरी मान्यता में यह है की जो भी वस्तु, क्षण, व्यक्ति, पशु आदि अथवा इनका समूह आपके विचारो को तरंगित करे, वह गुरु है| जिसे यदि साधारण भाषा में कहा जाए की सम्पूर्ण प्रकृति ही गुरु है तो गलत नहीं होगा| हर व्यक्ति इसके सान्निध्य में बहुत कुछ सीखता है, यदि हम संवेदनशील होकर इसके प्रत्येक अंश को, कण को गुरु मान कर सीखे तो बहुत कुछ ऐसा है जिसे प्रकृति सरलता से सिखा सकती है| उस अनुभव को चिरकालिक बना सकती है|
हमारी प्राचीन शिक्षा पद्धति भी प्रकृति के भिन्न अवयवों के सान्निध्य को प्रमुख मानती थी| उन्हें समझने, छूने, सूंघने, महसूस करने आदि से पाठ्यक्रम शुरू होता था, और इसी प्रकार विद्यार्थी उस विशेष विद्या को प्राप्त करने के लिए अग्रसर होता था, जिसमे वह रूचि रखता हो| भारत में नई तालीम के विचार को स्थापित करने में महात्मा गांधी के सहायक, भूदान आन्दोलन के प्रेरणा स्रोत विनोबा भावे अपनी पुस्तक “Thoughts on Education” में कहते है की जिस तरह बच्चा खेलते समय यह नहीं सोचता की वह शारीरिक सौष्ठव के लिए अभ्यास कर रहा है उसी तरह यदि वह शैक्षणिक कार्य करते हुए यह आभास न करे की वह शिक्षा प्राप्त कर रहा है, तब ही वह स्वाभाविक शिक्षा प्राप्त कर रहा है अन्यथा यह उस पर दबाव है|

वस्तुस्थिति
आज हमारी शिक्षा न तो पूर्णत: पाश्चात्य सभ्यता पर आधारित है न ही पूर्णत: भारतीय सभ्यता पर| किन्तु दुखद: विषय यह है की यह चुनाव हमने सोच समझ कर नहीं वरन जैसा चलता है, चलने दो के भाव की वजह से अपनाया है| इस सोच ने हमारी आलस्य के सभी बाँध तोड़ दिए है| चूँकि मै अन्य विषयों में भटकने का साहस अभी नहीं कर सकता, इसलिए इस भाव के इस प्रभाव तक ही अपनी बात रख रहा हूँ|

आशा की किरणे
भारतीय संस्कृति में तो कई ऐसे उदाहरण हैं जो विश्वास दिलाते हैं की शिक्षा प्राप्त करने में वास्तविक जीवन के अवयवों का कितना महत्वपूर्ण स्थान है| पुस्तकों द्वारा, वह भी विशिष्ट पुस्तकों द्वारा थोपी गई समझ, छूने, महसूस करने, देखने, बजाने, आदि की समझ से ऊँचे पायदान पर रखी हुई समझ है| इससे आशय यह है की अपनी इन्द्रियों को बंद कर पुस्तकों से वस्तुओ के व्यवहार को समझना ठीक उसी प्रकार की बात है, जैसे हम किसी छोटे बच्चे से लोक, परलोक और आध्यात्म की चर्चा करें| भारतीय शिक्षा के प्राचीन स्वरुप के लिए हम पंचतंत्र का उदाहरण ले सकते हैं जो व्यक्ति को, बिना यह कहे अथवा महसूस करवाए की वह उसे व्यवहारिकता सिखाएगी, सिखाती है|
कुछ पश्चिमी जगत के विद्वानों की जीवनी पढने पर आभास होता है की वह व्यक्ति जो अपने बचपन में वास्तविक अवयवों से खेलता-कूदता बड़ा हुआ है, उसने एक सफल व्यक्तित्व का निर्माण किया| उदाहरण के रूप में NASA Engineer “Homer Hickam” के जीवन पर आधारित फिल्म “October Sky” देख सकते हैं| यह Hollywood फिल्म, Homer के विद्यालयी जीवन की है, जब वे प्रथम मानव निर्मित रुसी उपग्रह (Sputnik) को देखकर, एक राकेट बनाने के लिए प्रेरित हो जाते हैं| यह प्रेरणा न सिर्फ उनके जीवन बल्कि उस कस्बे के लोगो के नजरिये को ही बदल डालती है|
इसी प्रकार यदि हम Nuclear Physicist “Richard Feynman” की बात करे तो वे अपनी पुस्तक “Surely you must be joking Mr. Feynman” में बताते हैं की वे अपने बचपन में, पॉकेट मनी के लिए लोगो के रेडियो ठीक करते थे और इससे उनकी विद्युत् और उससे जुडी विभिन्न वस्तुओ जैसे कैपासिटर, रेसिस्टर आदि के बारे में समझने में बहुत मदद मिली|
Buckminister Fuller जिन्होंने C12 की संरचना सुझाई, Geodesiac Domes (ऐसी ईमारते जो भूकंप रोधी होने के साथ साथ खड़ीं करने में सुविधाजनक, उर्जा संरक्षक होती हैं) का architecture सुझाया, वे बचपन में लकड़ी के खिलौने / औजार बनाते रहे, उन्हें स्कूल में ज्यामिति समझने में दिक्कत होती थी और बाद में वे Mensa जैसी प्रतिष्ठित High IQ Society के अध्यक्ष पद पर रहे|

शिक्षा की वस्तुस्थिति की भयावहता
आज की हमारी शिक्षा पद्धति खोजी न रह कर विश्वासी हो गयी है| इसमें और धर्म ग्रंथो में कोई विशेष भिन्नता नहीं रह गयी है| विद्यालयों-विश्वविद्यालयों में पदासीन हम लोग यह बताने में कठिनाई महसूस करते है की क्यों धरती गोल है? कैसे एक व्यक्ति मानले की वह गोल ही है?
जीवन के बहुमूल्य २० वर्ष एक बच्चा अपने माँ-बाप और समाज पर विश्वास कर हमारी शिक्षा पद्धति को सौप देता है| इन वर्षो के दौरान उसे कोई ऐसा मौका नहीं मिलता जहाँ वह जाकर देख-समझ सके, की बीस वर्ष उपरान्त उसे कैसा काम करना होगा? उसे काम के दौरान किस-किस तरह की कठिनाई उठानी पड़ेगी? कहाँ उसकी शिक्षा काम आएगी? किस किस तरह के काम होते है? कौन कौनसा काम कैसे होता है? जो काम उसे मिलेगा उसमे वह ख़ुशी महसूस करेगा अथवा नहीं? क्या जो वह कर रहा है उससे उसके मन में जो सवाल घूमते है उनका हल मिलेगा? संतुष्टि मिलेगी? आदि| इन सवालो के अम्बार में से एक भी सवाल उसके लिए सुलझा हुआ नहीं होता| हमारी शिक्षा पद्धति जैसे एक अंधविश्वास पर चल रही है| उसमे उससे कोई पूछने की जुर्रत नहीं कर सकता अथवा करता नहीं| इस तरह की शिक्षा न सिर्फ नवयुवको को अपने कार्य को लेकर असंतुष्ट रखती है साथ ही गुलामी का भाव भी जगाती है| जो पढ़ रहे हो वह सही है| अच्छी नौकरी पढने के बाद ही मिलेगी, इसलिए पढ़ते रहो| इस प्रकार के वाक्य शिक्षा में पारदर्शिता को ख़त्म कर रहे है और नई सोच के पनपने में व्यवधान पैदा कर रहे है|
पुन: वास्तविक जीवन से कटी हुई शिक्षा पूर्ण नहीं हो सकती| वह विद्यार्थी को नहीं बताती वास्तविक जीवन में कार्य करते हुए उसे किन परिस्थितियों से गुजरना पड़ेगा? चूँकि हर व्यक्ति अपने आप में विशिष्ट है, उसकी अपनी इच्छाए, पसंद, नापसंद होती है, ऐसे में किसी व्यक्ति का अनुभव सहायक हो सकता है, लेकिन निर्णायक परिस्थिति में नहीं ले जा सकता| वास्तविक जीवन से कटे होने से इसमें यह खोट भी है की यहाँ से निकल कर विद्यार्थी अपना काम स्वतंत्र रूप से कर पाने में अक्षम रहता है| अर्थात उद्यमिता की मौत, मतलब पढ़े लिखे उद्यमी मिलने की संभावना न्यून|

उपायों की खोज
शिक्षा के जीवन में इतने महत्वपूर्ण होने के बाद भी, इन सब न्यूनताओ को देखते हुए हम चुप कैसे रह सकते है| शिक्षा मात्र जीविकोपार्जन की आवश्यकता नहीं है, यह इससे अधिक हमारी ख़ुशी, सामाजिक समृद्धि का साधन है| इसे विद्यार्थी के लिए जवाबदेह और पारदर्शी होना ही चाहिए| आइये इसके विभिन्न स्वरूपों का अध्ययन करे| इसके लिए अपनी सोच बदले, हम अपने बच्चो की दिमागी खुराक के प्रति सही जिम्मेवारी निभाये| शिक्षा हर उस कार्य से प्राप्त की जा सकती है, जो समाज अथवा प्रकृति के लिए किसी न किसी रूप में उपयोगी हो| ऐसे कार्यो को छोटे पैमाने पर करने से शिक्षा के व्यवहारिक जीवन में उपयोग के लिए तानाबाना बुना जा सकता है| इस तानेबाने पर बच्चो को सरलता से आगे बढ़ाते हुए उन्हें सामाजिक दायित्व समझने और कार्य चुनने की व्यवहारिक स्वतंत्रता दी जा सकती है| इस प्रकार न सिर्फ हम एक आत्मनिर्भर व्यक्तित्व का निर्माण कर सकते है साथ ही उद्यमिता के गुणों में वृद्धि कर सकते है| यह पारदर्शिता व्यक्ति को कार्य के चुनाव में व्यवहारिक स्वतंत्रता दे सकती है साथ ही गलत को गलत और सही को सही कहने की इच्छाशक्ति भी प्रदान कर सकती है|
मेरा अभी यहाँ विराम देना आवश्यक है, क्यूंकि यह विराम हमें अपने अन्दर बैठे विचारक को इस मुद्दे पर विचार करने लिए समय देगा| मेरी आशा है की हम अपनी अगली पीढ़ी के भविष्य को पूरी सवेंदनशीलता से लेंगे और यह जानने की भरपूर कोशिश करेंगे की ऐसी जटिल समस्या के हल का स्वरूप क्या हो| आप अपने सुझाव एवं सवाल मुझसे साझा करने के लिए navkapil@gmail.com पर email भेज सकते है| हमारे इस संवाद से शायद कुछ परिपक्व विचारों का उद्घाटन हो और  शिक्षा के स्वरूप में वांछित बदलावों का आगमन हो सके| मै इन विचारो के बारे में बात करने के लिए लगातार लिखने की कोशिश करूँगा इसके लिए आप के विचार प्रेरणाप्रद रहेंगे|




No comments:

Blog Hit Counter

Labels